Wednesday, 14 March 2018

निसर्ग के चक्र में

खोलो दृग गगन की ओर
झांककर सवेरे को देखो
अलि घूमते नीले गगन
में सलिल की बूंदों के अभिषेखों

              दुकूल फैली धरती के उर पर
              महीन , जिसपर विहग है पैदल फिरते
              ताजगी भरी दूर्वा की गोद में
              जैसे रोहित है गिरते।

जलधि का जीवन देखिये
फेन गुड़गुड़ है मचाते
झष बड़े बड़े लहरों में
पलटियां है झूमकर खाते

              पराधीन नही किसी के
              विहग अपनी मस्ती में मग्न
              अस्ताचल कभी भी होगा
              होगा जीवन का अभिसार कभी भी नग्न

रवि झुककर कभी नमन
सुकुमार जलज को नही करेगा
अपनी धुन में तल्लीन
यह कभी उससे नही डरेगा

              
              पृथ्वी पर स्वर्ग से रूपा
              अवभृथ होकर निकल है आई
              आंधी तूफानों से रक्षा
              है अपने पंखो को कर लाई

द्रुम हिले जब द्रुत लगा दर्द
से आहत तीव्र तूफ़ान
पावक की बरस से बैठ
जाये यह सबके सब निज़ाम।

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