Saturday, 10 March 2018

वातायन

उषा के सीने से बाल रवि
चरकर बाहर है निकल आया
कहीँ धुप थोड़ी पड़ी
तो कही शीतल छायाँ में आराम करने आया

झोकों में बहती अनिल
रूककर पुनः चल पड़ी
निसर्ग नारायणी को आलोक
ने कहा अल्हड़ है तू बड़ी

बुलबुले वातावरण में मंद मंद
गीत गाते करते है सरण
आओ झरोखे की सीध में
हमें वहीं मिलती है शरण

आकाश समूह सागर की
ओर रात की खिड़कियां खोल है निकल पड़े
सलिल ने मुहाने खोल
दिए है अपने बड़े बड़े

इसकी चोखी पर बैठ है
जीवन आगे बढ़ता
कोरे पन्नों को पलटते
स्मरण भी है करता

नौ बजे उठकर मौसम
है नयनों ने इसी के आसरे है बुहारना
जब देरी न हो तो
लाजवन्ती को पास आओ , पुकारना

यह पुरानी होकर भी
संग निभाना है जानती
ग्रीष्मकाल को धता दिखा
गर्म अनिल को है सालती।

2 comments:

  1. बहुत अच्छे शब्द प्यारी कविता

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  2. बहुत अच्छे शब्द प्यारी कविता

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