भीग चुकी नजरें ,बीत चुके
अल्हड़ मस्ताने
लाल किले के चौक से
दबी घृणा रहा करती थी
जिनके समीप वह भी थे भयभीत
उनकी प्रतिबद्धता के रौब से
वेणु कुंज में बैठकर जो
मानवता की दिशा तय करते थे
भूख भूख सत्यानाशी के तीव्र हमलों
से भी न लक्ष्य से वे डरते थे
दीप शिखा की बुझ जाये
वह ईश्वर की पूण्य रौशनी
की राह में रत हो जाते
ऐसे महापुरुष राष्ट्र के
अंधकार में भी जगमग जाते
रार न ठानकर आगे बढ़े
सदैव सत्य का पताका लेकर
आज समय दे रहा ताने उन्हें
शत्रु राष्ट्र का कहकर
मैने हे ईश्वर जीवन न माँगा था
हथियारों की यलगारों में
पाप फुट रहे मानो पेड़ों
की छालों और क्षारों में
मर गया अतीत ,अमिट ,अमित
मर गई मिट्टी की संस्मरणिता
रंग भेद घृणा की गतिशीलता
अग्निदग्धा नारी अग्नि में जलती अरमानों की चिता
भीड़ जा रे कवि
आज के विभेदों से
मैदान में डटकर रह या
विदाई ले ले प्यारे प्यारे खेतों से।
वाह
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