Saturday 24 March 2018

ताकतवर व्यक्तित्व की गाथा

मेरे प्रिय साथियों , मेरा आप सभी को नमस्कार , आशा है आप सभी ठीक होंगे !

आज मै आपको अपनी कविताओं से अलग , एक ऐसे व्यक्तित्व के बारे में बताना चाहता हूँ , जो सबसे भिन्न है । मेरे इस लेख का शीर्षक भी " ताकतवर व्यक्तित्व " है ।

बलशाली , धैर्यवान , महत्वकांक्षी और सबसे अलग अपनी अतिरिक्त काबिलियत का जीवित चेहरा जो होता है , वही ताकतवर व्यक्तित्व है । इसी पर मेरा उसे दिया गया संज्ञान " जिसकी पीठ से सूरज उगता है " है। इसका अर्थ है " संघर्ष की बेला में न थकने वाला , इंसाफ को पसन्द करने वाला , धैर्यशाली व्यक्तित्व । इस तरह की पहचान वाले इस दौर में कुछ एक ही पाएं जाएंगे ।

हजार दर्द , जख्म सहन करने के पश्चात भी उसकी किसी को नुकसान न पहुँचाने की नियति उसका महान गुण है । हर कोई आज जब
शत्रु से प्रतिकार लेने का मकसद रखता है । किन्तु एक महान व्यक्तित्व इंसाफ के लिये ईश्वर को पुकारता है , उसका यह संकल्प है वह किसी को अपने स्वयं के किसी लक्ष्य उपार्जन के लिये कतई निरूपित नही करेगा । उसके भीतर मानवता का वह अग्रणी गुण टँकीट होगा जिसके आधार पर वह इंसाफ का तराजू सबके सामने प्रदर्शित करेगा । उसका एक मात्र उद्देश्य परिहित है । जिसके आगे सारे मिथक टूटते होंगे । अंत में उसकी पहचान निराली होगी , उसका ध्येय आकाश कक्ष के प्रथम कोष से अवतरित हुआ होगा ।

Friday 23 March 2018

अतीत के जख्म

बदल गये मौसमों से
उलाहना पुरानी मेरी है
कजरी पलकों पर
अतीत की अंधेरी तेरी है

                जिस तिमिर से सजा
                रात की वेग में गुलशन
                पद की डगर अनदेखी
                रखूँ पैर किधर , है बड़ी उलझन

फल की इच्छा से दूर
तलक , दिल का है बसेरा
मुझे बाह फैलाकर साँस
और मनुजो की खुशियों का बनना है चेला

                सुंदर बगीचों में हरियाली
                जो रही थी प्रेम की झूम
                भ्रमर के तेज वेग ने मिटा
                दिया उसका भी कुमकुम

नीज नारों से क्या होता
है, अनर्थ , वर्था स्वहित
निस्पृह रहा था खूब जाड़ों
में , भय खाती थी शीत

                 पत्थर दिल के सामने
                 मस्तक , है अपना फोड़ना
                 क्यों माथे को तोड़
                 और क्यों विरह , वेदना , रोना

जीवन अरूचिकर होना
उससे बदल जाना सम्भव है
पौष का फागुन से मिल जाना
किन्तु यह असम्भव है

                  निंदा जीवन की नही
                  कटु सत्य , नीरव अभागा
                  यह मिला ही क्यों जब
                  तानना ही ग़मो था धागा।
              

क्रष्ण माया

गंगा सा मन अगर कतिपय

तुमसे हो गया

सुदर्शन का शिखर संधान

फिर है ढह गया।

Thursday 22 March 2018

शीशे का शहर

दर्पण में छायाँ छपी
हथेलियों के पोर है खुले
मेरे सयाने शहर की
बस्तियों में , सुकुमार खिले

                  प्रणय हरियाली की प्रीत
                  भोर में वंदन , गान , हे प्रभु
                  सजल नयन , पोखरे झूम उठे
                  चर्चों में नाद , हे ईसू

निसर्ग षोडशी का श्रंगार
स्वयं, भीतर से आई बाहर
वनमाली ने लिए तोड़
चमेली के कुंद चार
 
                  
                  गौरव की महिमा में शर्म
                  से छुप गए यहां के बाजार
                  लौट लगाकर भक्त होते
                  दीवाने , दादाजी के चौ चौ धार

गगन ने पाति लिखकर
स्वत्व से मंगल कामना है की
पृथ्वी ने मांग को स्वीकार
करके पल्लू में है बांध ली

 
                  नजारे देख इंद्रदेव ने धीरज
                  के बन्धन है तोड़ दिए
                  बादलों से हाथ छुड़ाकर
                  सलिल की बूंदों को मेरे शहर मोड़ दिए

छोटी सी बेकली है
माथे पर बिंदी है चमकनी चाहिए
द्वार पटल पर इसके
लिखिये , सादर आप सभी पुनः आइये

Wednesday 21 March 2018

मिसाल नही

तेरी वफ़ा का हिसाब क्यों करना
जिंदगी के निज़ाम के रंग है भरना

जिन राहों पर कांटे मस्ती में मशगूल है
लड़कपन में पांवो को छुएं सी धूल है

इन हवाओं में कुछ तो नमी तुम्हारी शामिल है
देखी मैने हंसी के फव्वारों में जमी बर्फ की सील है

रातों के गहरे अँधेरे में गुम , भटक सा गया
तारों के बाजार में नन्हा तारा रास्ता भूल गया

पनघट को चली चुनरी लहराते उषा
किरणों के मेले में घुस गई जाकर पूरब दिशा

बिछी चादर फूलों की , खुशबु किधर रही घूम
माथे को प्यास लगी होंठो की चूम

सूरज पलटता नही क्या उसे हुआ अगर
भूल गया आना या धूल गई डगर

भीड़ लगी तुमसे दर्स मुबारक सुनने की शहर
सामने से बह निकलेगी मीठी सी नहर

परिदें सी रूह सफेद गुलिस्ताँ का नजारा
हमी के बीच चमक उठे चेहरा तुम्हारा

मंजिल की परवाह न अंजाम की फ़िकर
लब पर हर मुश्किल में नाम प्यारा जिकर

मौजूद हो किले की दीवारें टिकी हुई
इन्तेजार में मानो बारिश की बूंदी भी भीगे हुई

कला बाजीगरी का नमूना कहाँ से आया " शहादत
इस दौर में कोई मिसाल न होगी न हुई।

Tuesday 20 March 2018

मेहनत की दीवार के पीछे " भारत "

मेरे विनम्र साथियों , आप सभी को मेरा समर्म नमस्कार,

मेरी बात आज आपसे " मेहनत की दीवार के पीछे " भारत " शीर्षक के रूप में होगी ।

किन्तु प्रथम में नमन बिंदु -

" हे ईश्वर ईश गीत
  गा उपकार तेरा बताएं हम
  मन्दिर - बाट चक्कर लगा
  शीश समक्ष तेरे नवाएँ हम "

वैश्विक तकनीक के बीच भारत के योगदान के प्रयास उसे वैश्विकता में प्रतिस्पर्धा के बीच कायम रखने के प्रयास भर है ।

लेकिन इस बात को नजरअंदाज नही किया सकता , इन सबके बीच भारत की मुख पहचान संस्क्रति है ।

मै उस आजाद भारत की चर्चा कर रहा हूँ जिस भारत को आजादी , संघर्ष की अंतिम शक्ति की पंक्ति से मिला है । जो की शोणित तन के बलिदान समस्त वीरों के हर लहू ने दिलाया , यह हर एक भारत के नागरिक पर किय गया अविस्मर्णीय उपकार तथा विश्व के लिए सीखने समझने का विषय ।

इससे इतर संघर्ष , मेहनत का चरम प्रथम चक्र गाँव से शुरू हुआ , जिस भारत की पहचान अब भी गाँवो में शेष है । विदित हो , ग्रामीण जीवन अब भी ईश्वर के सबसे समीप है , उसके आलोक चौराहे , प्रकृति की संतानो में सबसे अभिसार है ।

लेकिन लालसा के इस बाजार राजनीत , मीडिया में अवसर है अभ्युदय पाने का , जहां हर कोई यह चाहता है उसे प्रसिद्धि के शिखर शीघ्र मिले । जिसके लिए उसे किसी से लड़ाना द्वेष फैलाना कोई पाप प्रतीत नही होता ।

यहां तक की वह संघर्ष से किये आजाद भारत के मर्म को भी पीछे रख , आगे बढ़े जा रहा है , मै बात उस उपकार की कर रहा हूँ जो वीरों के विमल बलिदान ने हमपर 70 बरस पहले किया ।

उस बलिदान का सिला लालसा की बत्ती जलाकर उसके संग छल करके दिया जा रहा है । क्योकि इसका बड़ा कारण चकाचौंध में होते दीवाने ह्रदय का होना भी।

गरीब का खून बहाकर जो लोग हंसते है उन्ही के संग आज राजनीती के पखवाड़े सज रहे है , क्रूर मानसिकता के साथ जश्न मनाएं जा रहे है ।

सत्ता हासिल करने के लिए भारत राष्ट्र के दो अमूल रत्न भाई हिन्दू भाई मुस्लिम को लड़ाने के प्रयास किये जा रहे है । यह सब उन बलिदानों का अपमान है जिनके कारण देश आजाद हुआ ।

मै एक बात यह भी कहूँगा , जब वीरों के बलिदान आज के राजनीत के लोगों के आगे कोई विशेषता नही रख रहा तो समझिये भगवान परम् पूज्य अप्रतिम पित महाप्रभु राम इन सत्ता वालों के आगे क्या मायने रखेंगे ? जरा इस बात को भी गहनता से सोचिये ।

Saturday 17 March 2018

शेष जीवन हठ है

हूँ जिस समय जिस सतह पर
अकृत , असमय विकार सा हूँ
यूँही घूमता फिरता अकाल
मनहूसियत के प्रकार सा हूँ

                    क्षण क्षण के विप्लव से
                    क्षुब्द हुआ अप्रिय जीवन
                    किसलय सूख रहे जिस तरह
                    एक दो दिन की अमिय बिन

बूढी बुद्धि क्या करे अजय
होने से पूर्व खेमे में अरिष्ट आएं तो
बहुमुखी प्राणी रोते हुए
व्यथा कहें ऐसे दिन दिखलाये क्यों

                     जयकारे लगा दो जून की रोटी
                     घर में गहरे खड्डे कर देती है
                     गरीब निकर के शोणित को
                     अपने गेह में भर लेती है

सुना पतझड़ में पत्ते रोकर
टूटते बिझरते रहते है
अनल के प्रहरियों से
दया की भीख मांगकर कहते है

                     चीर शत्रुओं के घर में
                     संप्रति सैनिकों के पहरे है
                     लाव लश्कर के पीठों
                     बनेगे यही एक दिन तिमिर - अँधेरे है

डाल पर बैठे पक्षी - विहग
शृंग शिखर तक जा नही सकते
समझ ले कुपित - दनुज भाँति
इसके ,विजय मानवता पर पा नही सकते

                      जल के बिना सब सूना है
                      विपिन के पेड़ , भूखे क्रौंच
                      बेकली के मुख लिए
                      दौड़ पड़े बाज सूखे चोंच

वरदान मांगा बस अब
अस्त हुए जीवन द्वन्द्व ने
उदयाचल की संगीन कहानी
जब प्रार्थना थी मांगी नन्द ने

                     
                    

Friday 16 March 2018

अंतिम छोर के भारतीय की गाथा

मेरे प्यारे साथियों मेरा आप सभी को नमस्कार ,


आशा है आप सभी ईश्वर की दया से सकुशल होंगे ! अगर आप सकुशल नहीं भी हो तो मै ईश्वर से आपके लिए प्रार्थना करता हूँ। 


साथियों भारत की संस्कृति विश्वव्यापी रही है , संस्कृति की बात प्रथम में इसलिए क्योकि संस्कृति भारत का गेह है। इसमें दया का भाव निहित है , और दया मानव का प्रथम सज्जन गुण है। 


मै आज आपको उस अंतिम छोर के आम भारतीय का जीवन चित्रण बताता हूँ , जिसका जीवन यापन किन कठिनाईयों के बीच झकोर खा रहा है। '' अंतिम छोर शीर्षक है ''


राष्ट्रीय राजमार्ग २७ , गांव में से गाड़ी के गुजर के बीच मेने सूनी खुलीं पड़ी दुकाने ग्रीष्म काल के मौसम में कुछ एक लोगों की आवाजाही के बीच देखी , सड़कों पर विजन नजर आती है , सूखे पत्ते उड़ते हुए पतझड़ की ओर इशारा करते हुए सामान्य जीवन के संघर्ष को इंगन कर रहे है। गाँवो में सिवा खेती के कोई और रोजगार शेष नहीं , कड़कती धुप , माथे पर चमचमाता स्वेद , थकते तन को आगे कर रहा है। घर के चार लोगों के लालन पालन का भार कंधों पर असहनीय दर्द भी सहन करने का कार्य करवाता है। पेट के लिए जिस मजदूरी की आदत बदन को लग गई वह और शक्ति तन को दी रही है। मै यह नहीं कहता की मजदूरी उसका मजा है ,  मगर वह उसे अब उसकी आदत में टंकित हो चूका। मजे से रहना किसे अरूचिकर होगा ! लेकिन जो लोग AC में बैठकर मजे ढूंढ रहे है उन्हें संघर्ष करते हुए इस निचले स्तर पर निवास करके रहने वाले इस संघर्षशील व्यक्ति के जीवन रंजन को समझना चाहिए जो मजबूरी में भी मजा ढूंढ गया और मजे में रहने वाला व्यक्ति AC के मजे से भी संतुष्ट नहीं। 


अभी भारत नई तकनीक के सुनहरे पद तय कर रहा है , किन्तु गरीब के घर का एक बच्चा जिसके पैर में चप्पल नहीं है प्यारे मुखड़े पर धूल रज लगी निर्धनता को बयान कर रही है। उसे तकनीक के आयामों की कोई खबर नही क्योकि उसकी बुनियादी जरूरत भी अभी पूर्ण नहीं हुई। 


क्या अब मेरे ग्रामीण भारत के संघर्षशील भविष्य को कोई झांककर देखेगा ? जिसके एक बुजुर्ग के सर पर गमछा बंधा हुआ है जो गरीबी की नोक पर अपने तन को धुप की भेंट चढ़ा रहा है। 



Wednesday 14 March 2018

निसर्ग के चक्र में

खोलो दृग गगन की ओर
झांककर सवेरे को देखो
अलि घूमते नीले गगन
में सलिल की बूंदों के अभिषेखों

              दुकूल फैली धरती के उर पर
              महीन , जिसपर विहग है पैदल फिरते
              ताजगी भरी दूर्वा की गोद में
              जैसे रोहित है गिरते।

जलधि का जीवन देखिये
फेन गुड़गुड़ है मचाते
झष बड़े बड़े लहरों में
पलटियां है झूमकर खाते

              पराधीन नही किसी के
              विहग अपनी मस्ती में मग्न
              अस्ताचल कभी भी होगा
              होगा जीवन का अभिसार कभी भी नग्न

रवि झुककर कभी नमन
सुकुमार जलज को नही करेगा
अपनी धुन में तल्लीन
यह कभी उससे नही डरेगा

              
              पृथ्वी पर स्वर्ग से रूपा
              अवभृथ होकर निकल है आई
              आंधी तूफानों से रक्षा
              है अपने पंखो को कर लाई

द्रुम हिले जब द्रुत लगा दर्द
से आहत तीव्र तूफ़ान
पावक की बरस से बैठ
जाये यह सबके सब निज़ाम।

Monday 12 March 2018

मुहब्बत है बिछौना

पीते है तेरे दर का
कहलाते है तेरे दर का
मांगना है मेरा मांगना
और देना ये तेरा देना

हाँ दिल को ही ले लेना

झुकी है नजरें पैदल
लेकर आया दिले संदल
आशियाना पूरा होगा
बगिया में हवा का झोका

हाँ दिल को ही ले लेना

दुनिया से न मांगा आसरा
सुनो उसी एक माजरा
इन्सियों को भुला देना
दम आखर है ना

हां दिल को ही ले लेना

Saturday 10 March 2018

वातायन

उषा के सीने से बाल रवि
चरकर बाहर है निकल आया
कहीँ धुप थोड़ी पड़ी
तो कही शीतल छायाँ में आराम करने आया

झोकों में बहती अनिल
रूककर पुनः चल पड़ी
निसर्ग नारायणी को आलोक
ने कहा अल्हड़ है तू बड़ी

बुलबुले वातावरण में मंद मंद
गीत गाते करते है सरण
आओ झरोखे की सीध में
हमें वहीं मिलती है शरण

आकाश समूह सागर की
ओर रात की खिड़कियां खोल है निकल पड़े
सलिल ने मुहाने खोल
दिए है अपने बड़े बड़े

इसकी चोखी पर बैठ है
जीवन आगे बढ़ता
कोरे पन्नों को पलटते
स्मरण भी है करता

नौ बजे उठकर मौसम
है नयनों ने इसी के आसरे है बुहारना
जब देरी न हो तो
लाजवन्ती को पास आओ , पुकारना

यह पुरानी होकर भी
संग निभाना है जानती
ग्रीष्मकाल को धता दिखा
गर्म अनिल को है सालती।

चाँद सा मुखड़ा

एक बार फिर दिखा दो
वो चाँद सरीखा मुखड़ा
मेरे इश्क मेरे हमदम
एक बार सुन लो दुखड़ा

नही जाने वाले है आते
एक बार दामन छोड़कर
फिर यादों के पैरहन से
रहते है हमेशा लिपटकर

है सामने नही वो
आसानी का करीना
दूर तलक है नक्शा बताता
परेशान है यहाँ दीवाना।

बड़ी दूर से है आया
मिलने साथ चलने
वादा किया था जब
बिन तुम्हारे ईमान ,दिल मचलने

आजाद था है तू रहेगा
मेजबान मै हमेशा रहूंगा
सर का ताज अपने बनाकर
जिंदगी , तुम्हारे बीच रहूंगा

कहां जाये ये मारा मारा
जो दफा हुआ है तुमसे
महल गाए गम के गीत
कब्र ये घर लिए मेरे कसम से।

Thursday 8 March 2018

गहरे जख्म है !

बड़े गहरे जख्म है
नवयुवाओ को देखकर
कील सी चुभन के बीच
तड़पते गरीब रेतपर

               कठोरता की रस्म अदा
               कौन न सिवा करेगा
               सूने से इलाक़ों को
               रौनक से कौन भरेगा

पूरा का पूरा जग मांग
ईश्वर से रहा याचना
इन मासूमो की मासूमियत
को तुम न बाँटना

               कितने दर्द सहकर
               बसे बसाए उजड़ गए
               खुशहाली के हेतु अब
               बंजर से शहर रह गए

सिसककर धड़कने फलाँगे
है अपनी जगह लगाती
चूर चूर बदन मानो
खाने को दौड़ लगाती

               कोई बख्श दो देश
               हिन्दोस्तां को मेरे
               इसने कदम कदम पर
               खाये है दाग गहरे

न चाहिए धन न चाहिए
यश ! मुझे केवल रस
भीगे रहें ख़ुशी में सारे
तर रहे चेहरे महकते ख़स

                दीये जल उठे जो बुझाए
                खून कशी के लिए थे
                हकीकत में मारे नही
                वो उनकी शहादत के लिये थे

कम है मगर काफी है

है हल्ला जिंदगी में मगर
हां बाकी जरूर चालाकी है
गुस्ताखी माफ़ करिये मेरी
हां इश्क के प्याले का तू ही साक़ी है

गमले में नमी फूलो की
जेवरात से बढ़कर
गुस्ल पाकी के लिए
ईमान मुकम्मल नीयत पर चढ़कर

महके गली मुहल्ले आँगन
एक बड़ी गुजर से तुम्हारी
आगाज अंजाम का सिलसिला
कामयाब जिंदगी हमारी

गले में गुलजार , आँखों में
बरसात बहुत तारी है
गुस्से को पी जाए ताकि
हमसफ़र जागे यही तुम्हारी गमगुसारी है

कलियों में जवानी उमड़ती
रास्तों को खबर मिल जाती है
पौं सुबह की फटती
आफताब सी चमक जाती है

जुल्फों में उलझकर क्या
खुद को क्या उलझाना है
बेफिक्र अंदाजो का
दिल तो मेरा दीवाना है

नारी सहनशील

भग्न वीणा हाथ लिए
कभी कभी की सन्धि
अश्रुजल भरकर आँखों में
सुख की कभी ली मंदी

तिमिर हटा बांध कंठ में
अवदात रवि के पुंज
अन्धकार में बोये बीज
सुवास के पुष्प कुंज

उज्वला धुप में नही वरन्
शर में प्रतिकार का लिए रूप
माँ के ओहदे पर बैठी
कभी बेटी ,भार्या, बहुमुख

क्यों इतना भय कंस में
इसका रहता था छाया
कृष्ण को लोभ देकर भी
रहता रहा था छुपा काया

त्रिशूल जिस प्रकार नुकीली
नायक बनकर रहती है खड़ी
न्याय का गमछा बांधे
अन्यायों का सुनती है दुखड़ी

अब कोई मिलकर भी अनय
निहत्थी से कर सकता नही
माँ कराला के वारों से
दनुज शेष रह सकता नही

मिला जिसे पग पग छल
वह निर्जन नीरव अब होगी नही
जिस जिस शम्त आह स्वन निकलेगी
दंड असुर को देवमां देने से रुकेगी नही।

All photo's to show my poems . photo is also part of this.

#HappyWomenDay 

Wednesday 7 March 2018

व्याकुलता

सर पर भार अगर होगा
तो वह समय से बढ़ जायेगा
किन्तु सञ्चित थाती शेष भी
अशांति की भेंट चढ़ जायेगा

            

                  षोडशी का तारुण्य भी रवि
                  किरणों से जल जाता है
                  पतझड़ से खड़ा सूखे पेड़
                  का तना सूज जाता है

छिछले पूरब में साँझ जब
उमड़ गहन पड़ती है
उसी के उर से निशा
दर्शन दे उठती है

                    ये जवानी की ज्वाला कुछ
                    सीमित काल के लिए है
                    पुनः लौटकर ग्रह की ओर
                    ये शरीर बेजान रूख किये है

नीचे धरती उथल पुथल
अम्बर कुलिश के बाण छोड़ता है
अनिल के अगले सिरे से
तूफानों की दिशा मोड़ता है

                     खेतों में मेड़ो को थोड़ा जल
                     संजीवनी का घूंट पिलाता है
                     किसानो के मुरझे मुख पर
                     पर हर्षित पावक बरसाता है
                    
                 
             

Tuesday 6 March 2018

मन धँस सा गया

मूर्तियों में देश का ध्यान
धँस सा गया
तुझी से तुझी की आत्मा
को कोई ठग सा गया

महंगे गुलिस्ताँ में कोई
क्यों हाथ डाले
उसे उठाने से पहले
बताएं कोई छाले

कसम से शुरू झंडे
को सलाम तो किया लेकिन,
कुर्सी के कायदे में
अच्छे से अच्छा ढल सा गया

निसर्ग के स्निग्ध

चाँद किरणों के रूप में
भुज फैलाकर आवाज निकाले
क्रुद्ध हुए रवि के हुर
आलोक करके शीतल मशाले

गगन के पुंज में मेले आज
किन घटाओ ने लगाए है
धरती के पाहुना सब मिलकर
पुष्पक पर सवार हो आए है

कलिंदी बाहों में मलय की
छायाँ लेकर स्वप्न देखती रही
अस्ताचल में धीरे धीरे
राकेश को फेंकती रही

पूरब में निसर्ग आनन्दी
लालिमा के पहरे सजाती है
संध्या के कूल पहर में
धीरे धीरे छुप जाती है

काजल ओढ़े पनघट में
निशा वधु रूप लिए बैठी है
गोपियाँ वृंदावन में मानो
विरह मुरारी से ऐंठी है

कपाल पर सवेरा उगेगा या
मशाल जलाकर प्रत्यक्ष अडिग
मठमेले पाहन अनिल पहने
द्रुम रजत कानो में पावक के लगाएगें गहने बनकर रसिक

Monday 5 March 2018

अशेष निधि - शेष जीवन

कृपा के बादल घट गए
व्याघ्र ने शीश झुकाये
सत्य की अभिलाषा ने
काले कूह दिखलाये

                   जो शेष निधि छोड़ी घर
                   अश्रु जल बहाकर मिथिला ने
                   काल के सम्मुख भिड़े दाय
                   पीले पद कर दिए सरला ने

महिसासुर मात खाते यह
बोला , अनय हारेगा
हर युग में दुष्ट - अंत करने
कोई कृष्ण तो कोई अर्जुन आएगा

                   हाँ जब जग त्राहि त्राहि करेगा
                   ईश्वर के कोप धरती पर उतरेंगे
                   बागडोर टूटी सांसो की
                   अवतार ईश्वर वध को बिफरेंगे

निराश न होना नाभि के दर्द वालो
अनय कब तक होगा तुमपर
एक दिन शिव की शक्ति
और शीशो पर होंगे उनके कर

Sunday 4 March 2018

महादेव शंकर

शंकरसुवन पितृ सभी की

अभ्युदय अर्जी सुनते है

भुजंग - आसन बिछाते

तृण पद पद बुनते है।

विरह वेदना

शिथिलता के तंबू से बाहर
अब वीरों निकल आओ
कर्ज से ली सांसो का
सूद सहित प्रतिकार याद दिलाओ

              हर मोर्चे पर विफल विनय
              निर्दोषों के उठकर वृथ गए
              व्याघ्र की भाँति पद निशान
              अब शोणितों के लद गए

क्यों यह जीवन स्वत्व की
भेंट बलि मेध चढे हुए
इंगित कर उनके शोणित
विपन्नो के शीश रोये।

               शर लम्बी जिनकी चमकी
               शव निर्दोषो के गिरने लगे
               अरे जरा याद दिलाओं इन्हें
               यह मानव मनुज तुम्हारे ही सगे

थाती समेट कोने में बूढी
मैया ने सम्भाल रखे थे
अनभिज्ञ प्रलय सा बनकर
दनुज इनपर टूटे थे

               मिथिला की भूमि रंगहीन
               वीरों के जाने से हुई
               मथुरा की मीठी मीठी
               किसलय विरह में कृष्ण के रोइ

अंधत्व को छोड़ क्रोध त्याग
महिसासुर से जा भीड़
असुरों को प्रतिकार दे
फेर दे उनके मोड़।

Saturday 3 March 2018

शिव सदाचारी

अनय के मूढ़ दुष्टों को

क्या लज्जा नय की आएगी

शंकर की त्रिशूल ही अधर्मियों को

शिक्षा सत्य सिखाएगी।

~शहादत

Friday 2 March 2018

मुहब्बत से

मै व्यवहारिकता का जला
दीया सलाम तुम्हे करता हूँ
सखावत के लिए मै
खुदी को नीलाम करता हूँ

जमाने की अदावत मिट जायेगी
हमी को हो परवाह प्रतिबद्धता तुम्हारी सिखाएगी

मिशाल क्या दूँ बड़े आशिक मिजाज
हो , ऐ फ़ासलें वालों
जरा अपने ह्रदय को
मेरी जानिब तो लगा लो

मुहब्बत के गुलशन में
अल्हड़ फूल से चेहरे तुम्हारे है
अपने घरों से शत्रुओं को
मेरे वतन से क्या खूब निकाले है

कशमकश

कड़ी धुप की नजर मुझपर
आकर न जाने क्यों गिर पड़ी
आग की दुनिया में
कहर सी बनकर क्यों टूट पड़ी?

                     किसके तानो से भभककर
                     मन अपना बह जायेगा
                     हाँ गमे दिल के रस्ते में
                     क्या सबकुछ यूँही छोड़ जायेगा?

आजमाइश इस दौर में
मुहब्बत को जिला जायेगी
डगमग कदम अगर हुए
तो कितनी जिंदगियां खा जायेगी?

                     किस कशमकश में तुम्हारा दिल
                     आहें भरता रहता है?
                     सादगी के हर सफे पर जो
                     चमकते हर बाब कहता है

सदर में ख्वाबो के पूरी
एक कहानी गढ़ जाती है
सुबह के अनमने लम्हों में
भीने अहसास छोड़ जाती है

राजनीति से औधौगिक घराने की दोस्ती कानून पर भारी पड़ जाती है?

  नमस्कार , लेख को विस्तृत न करते हुए केवल सारांशिक वेल्यू में समेटते हुए मै भारतीय राजनीत के बदलते हुए परिवेश और उसकी बढ़ती नकारात्मक शक्ति ...