भग्न वीणा हाथ लिए
कभी कभी की सन्धि
अश्रुजल भरकर आँखों में
सुख की कभी ली मंदी
तिमिर हटा बांध कंठ में
अवदात रवि के पुंज
अन्धकार में बोये बीज
सुवास के पुष्प कुंज
उज्वला धुप में नही वरन्
शर में प्रतिकार का लिए रूप
माँ के ओहदे पर बैठी
कभी बेटी ,भार्या, बहुमुख
क्यों इतना भय कंस में
इसका रहता था छाया
कृष्ण को लोभ देकर भी
रहता रहा था छुपा काया
त्रिशूल जिस प्रकार नुकीली
नायक बनकर रहती है खड़ी
न्याय का गमछा बांधे
अन्यायों का सुनती है दुखड़ी
अब कोई मिलकर भी अनय
निहत्थी से कर सकता नही
माँ कराला के वारों से
दनुज शेष रह सकता नही
मिला जिसे पग पग छल
वह निर्जन नीरव अब होगी नही
जिस जिस शम्त आह स्वन निकलेगी
दंड असुर को देवमां देने से रुकेगी नही।
All photo's to show my poems . photo is also part of this.
#HappyWomenDay
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