सर पर भार अगर होगा
तो वह समय से बढ़ जायेगा
किन्तु सञ्चित थाती शेष भी
अशांति की भेंट चढ़ जायेगा
षोडशी का तारुण्य भी रवि
किरणों से जल जाता है
पतझड़ से खड़ा सूखे पेड़
का तना सूज जाता है
छिछले पूरब में साँझ जब
उमड़ गहन पड़ती है
उसी के उर से निशा
दर्शन दे उठती है
ये जवानी की ज्वाला कुछ
सीमित काल के लिए है
पुनः लौटकर ग्रह की ओर
ये शरीर बेजान रूख किये है
नीचे धरती उथल पुथल
अम्बर कुलिश के बाण छोड़ता है
अनिल के अगले सिरे से
तूफानों की दिशा मोड़ता है
खेतों में मेड़ो को थोड़ा जल
संजीवनी का घूंट पिलाता है
किसानो के मुरझे मुख पर
पर हर्षित पावक बरसाता है
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