दर्पण में छायाँ छपी
हथेलियों के पोर है खुले
मेरे सयाने शहर की
बस्तियों में , सुकुमार खिले
प्रणय हरियाली की प्रीत
भोर में वंदन , गान , हे प्रभु
सजल नयन , पोखरे झूम उठे
चर्चों में नाद , हे ईसू
निसर्ग षोडशी का श्रंगार
स्वयं, भीतर से आई बाहर
वनमाली ने लिए तोड़
चमेली के कुंद चार
गौरव की महिमा में शर्म
से छुप गए यहां के बाजार
लौट लगाकर भक्त होते
दीवाने , दादाजी के चौ चौ धार
गगन ने पाति लिखकर
स्वत्व से मंगल कामना है की
पृथ्वी ने मांग को स्वीकार
करके पल्लू में है बांध ली
नजारे देख इंद्रदेव ने धीरज
के बन्धन है तोड़ दिए
बादलों से हाथ छुड़ाकर
सलिल की बूंदों को मेरे शहर मोड़ दिए
छोटी सी बेकली है
माथे पर बिंदी है चमकनी चाहिए
द्वार पटल पर इसके
लिखिये , सादर आप सभी पुनः आइये
No comments:
Post a Comment