Friday 16 March 2018

अंतिम छोर के भारतीय की गाथा

मेरे प्यारे साथियों मेरा आप सभी को नमस्कार ,


आशा है आप सभी ईश्वर की दया से सकुशल होंगे ! अगर आप सकुशल नहीं भी हो तो मै ईश्वर से आपके लिए प्रार्थना करता हूँ। 


साथियों भारत की संस्कृति विश्वव्यापी रही है , संस्कृति की बात प्रथम में इसलिए क्योकि संस्कृति भारत का गेह है। इसमें दया का भाव निहित है , और दया मानव का प्रथम सज्जन गुण है। 


मै आज आपको उस अंतिम छोर के आम भारतीय का जीवन चित्रण बताता हूँ , जिसका जीवन यापन किन कठिनाईयों के बीच झकोर खा रहा है। '' अंतिम छोर शीर्षक है ''


राष्ट्रीय राजमार्ग २७ , गांव में से गाड़ी के गुजर के बीच मेने सूनी खुलीं पड़ी दुकाने ग्रीष्म काल के मौसम में कुछ एक लोगों की आवाजाही के बीच देखी , सड़कों पर विजन नजर आती है , सूखे पत्ते उड़ते हुए पतझड़ की ओर इशारा करते हुए सामान्य जीवन के संघर्ष को इंगन कर रहे है। गाँवो में सिवा खेती के कोई और रोजगार शेष नहीं , कड़कती धुप , माथे पर चमचमाता स्वेद , थकते तन को आगे कर रहा है। घर के चार लोगों के लालन पालन का भार कंधों पर असहनीय दर्द भी सहन करने का कार्य करवाता है। पेट के लिए जिस मजदूरी की आदत बदन को लग गई वह और शक्ति तन को दी रही है। मै यह नहीं कहता की मजदूरी उसका मजा है ,  मगर वह उसे अब उसकी आदत में टंकित हो चूका। मजे से रहना किसे अरूचिकर होगा ! लेकिन जो लोग AC में बैठकर मजे ढूंढ रहे है उन्हें संघर्ष करते हुए इस निचले स्तर पर निवास करके रहने वाले इस संघर्षशील व्यक्ति के जीवन रंजन को समझना चाहिए जो मजबूरी में भी मजा ढूंढ गया और मजे में रहने वाला व्यक्ति AC के मजे से भी संतुष्ट नहीं। 


अभी भारत नई तकनीक के सुनहरे पद तय कर रहा है , किन्तु गरीब के घर का एक बच्चा जिसके पैर में चप्पल नहीं है प्यारे मुखड़े पर धूल रज लगी निर्धनता को बयान कर रही है। उसे तकनीक के आयामों की कोई खबर नही क्योकि उसकी बुनियादी जरूरत भी अभी पूर्ण नहीं हुई। 


क्या अब मेरे ग्रामीण भारत के संघर्षशील भविष्य को कोई झांककर देखेगा ? जिसके एक बुजुर्ग के सर पर गमछा बंधा हुआ है जो गरीबी की नोक पर अपने तन को धुप की भेंट चढ़ा रहा है। 



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