हूँ जिस समय जिस सतह पर
अकृत , असमय विकार सा हूँ
यूँही घूमता फिरता अकाल
मनहूसियत के प्रकार सा हूँ
क्षण क्षण के विप्लव से
क्षुब्द हुआ अप्रिय जीवन
किसलय सूख रहे जिस तरह
एक दो दिन की अमिय बिन
बूढी बुद्धि क्या करे अजय
होने से पूर्व खेमे में अरिष्ट आएं तो
बहुमुखी प्राणी रोते हुए
व्यथा कहें ऐसे दिन दिखलाये क्यों
जयकारे लगा दो जून की रोटी
घर में गहरे खड्डे कर देती है
गरीब निकर के शोणित को
अपने गेह में भर लेती है
सुना पतझड़ में पत्ते रोकर
टूटते बिझरते रहते है
अनल के प्रहरियों से
दया की भीख मांगकर कहते है
चीर शत्रुओं के घर में
संप्रति सैनिकों के पहरे है
लाव लश्कर के पीठों
बनेगे यही एक दिन तिमिर - अँधेरे है
डाल पर बैठे पक्षी - विहग
शृंग शिखर तक जा नही सकते
समझ ले कुपित - दनुज भाँति
इसके ,विजय मानवता पर पा नही सकते
जल के बिना सब सूना है
विपिन के पेड़ , भूखे क्रौंच
बेकली के मुख लिए
दौड़ पड़े बाज सूखे चोंच
वरदान मांगा बस अब
अस्त हुए जीवन द्वन्द्व ने
उदयाचल की संगीन कहानी
जब प्रार्थना थी मांगी नन्द ने
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