उषा के सीने से बाल रवि
चरकर बाहर है निकल आया
कहीँ धुप थोड़ी पड़ी
तो कही शीतल छायाँ में आराम करने आया
झोकों में बहती अनिल
रूककर पुनः चल पड़ी
निसर्ग नारायणी को आलोक
ने कहा अल्हड़ है तू बड़ी
बुलबुले वातावरण में मंद मंद
गीत गाते करते है सरण
आओ झरोखे की सीध में
हमें वहीं मिलती है शरण
आकाश समूह सागर की
ओर रात की खिड़कियां खोल है निकल पड़े
सलिल ने मुहाने खोल
दिए है अपने बड़े बड़े
इसकी चोखी पर बैठ है
जीवन आगे बढ़ता
कोरे पन्नों को पलटते
स्मरण भी है करता
नौ बजे उठकर मौसम
है नयनों ने इसी के आसरे है बुहारना
जब देरी न हो तो
लाजवन्ती को पास आओ , पुकारना
यह पुरानी होकर भी
संग निभाना है जानती
ग्रीष्मकाल को धता दिखा
गर्म अनिल को है सालती।
बहुत अच्छे शब्द प्यारी कविता
ReplyDeleteबहुत अच्छे शब्द प्यारी कविता
ReplyDelete