चाँद किरणों के रूप में
भुज फैलाकर आवाज निकाले
क्रुद्ध हुए रवि के हुर
आलोक करके शीतल मशाले
गगन के पुंज में मेले आज
किन घटाओ ने लगाए है
धरती के पाहुना सब मिलकर
पुष्पक पर सवार हो आए है
कलिंदी बाहों में मलय की
छायाँ लेकर स्वप्न देखती रही
अस्ताचल में धीरे धीरे
राकेश को फेंकती रही
पूरब में निसर्ग आनन्दी
लालिमा के पहरे सजाती है
संध्या के कूल पहर में
धीरे धीरे छुप जाती है
काजल ओढ़े पनघट में
निशा वधु रूप लिए बैठी है
गोपियाँ वृंदावन में मानो
विरह मुरारी से ऐंठी है
कपाल पर सवेरा उगेगा या
मशाल जलाकर प्रत्यक्ष अडिग
मठमेले पाहन अनिल पहने
द्रुम रजत कानो में पावक के लगाएगें गहने बनकर रसिक
No comments:
Post a Comment