बदल गये मौसमों से
उलाहना पुरानी मेरी है
कजरी पलकों पर
अतीत की अंधेरी तेरी है
जिस तिमिर से सजा
रात की वेग में गुलशन
पद की डगर अनदेखी
रखूँ पैर किधर , है बड़ी उलझन
फल की इच्छा से दूर
तलक , दिल का है बसेरा
मुझे बाह फैलाकर साँस
और मनुजो की खुशियों का बनना है चेला
सुंदर बगीचों में हरियाली
जो रही थी प्रेम की झूम
भ्रमर के तेज वेग ने मिटा
दिया उसका भी कुमकुम
नीज नारों से क्या होता
है, अनर्थ , वर्था स्वहित
निस्पृह रहा था खूब जाड़ों
में , भय खाती थी शीत
पत्थर दिल के सामने
मस्तक , है अपना फोड़ना
क्यों माथे को तोड़
और क्यों विरह , वेदना , रोना
जीवन अरूचिकर होना
उससे बदल जाना सम्भव है
पौष का फागुन से मिल जाना
किन्तु यह असम्भव है
निंदा जीवन की नही
कटु सत्य , नीरव अभागा
यह मिला ही क्यों जब
तानना ही ग़मो था धागा।
शानदार
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