Monday 19 February 2018

उपल

खुल गई बूंदे , खिल गए निर्झर
धरा की गोद में
हरी हरी दूर्वा को छु गई
जैसे दुकूल सी रेत में

ललित विधाएँ गाती
मधुरस लिए सम्मुख
किसलय वृंते ताजगी पाती
प्यारे प्यारे लिए रूप

अलि फैेल गए चारों दिशा
नंदन वन में सुकुमारों पर
स्वेदकण जिस तरह सतीश
के तन से मलयानिल के शिखर तर

झूमकर नृत्य मुद्रा में
सरित लहरें मार रही
मोती समान पुलिन पत्थरों
के गुण गान रही

क्रौंच गीत गाते तमसा
के किनारो से
स्वन निकल आये
खुशहाली के पठारों से।

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