Thursday 1 March 2018

विपुल दर्द है

कला फुट गई ,
धनकुबेर विजय हो गए
मेरी बगिया के झिलझिल
कुंद सूखे से झूल गए

जीवन की ढलती
संझा मानो बुलाती है
सचेत दुर्मति शर नुकीले
मेघ से चलाती है

बिना विहान अँधेरे
निराशा खींच लाते है
अमि की संध्या को
जैसे मुँह चिढ़ाते है

कंधों में वारें यूं ही नही पड़ी
परिश्रम के भार डाले है
जो मुख आज खिला
ये उसी के निवालें है

सरला ने मुख मोड़ लिया
धर्मराज की नीतियों में खोट देखकर
बगिया को नजर लगी
हाय तोबा मचा रही रोककर

अंजुल रुधिर के तीर दिखा रही
चक्षु भीगे पश्चाताप में
सृष्टि के हर तिनके त्राहिमाम से
है क्यों मेरे जूझ रहे?

कृपण मै नही , न मुझे
कोई अभिमान है
यह तो ह्रदय के नष्ट हुए
अधूरे जहान है

दुर्दिन कटते कटते अंतिम कब आया
ढलने लगी शाम
हड्डियों से छोड़ संग
सुंदर थी दिखती काया

जिन हाथों ने पाला
जिन्होंने जगत की सैर कराई
हाँ मेरे ही हाथों-कंठो के कारण
उन्ही की आज आँखे भर आई

अब जीवन में जीने की
आशा शेष न रही
किले भेद गई नाकामी
कालचक्र को चढ़ गई आहुति जो है सही।

1 comment:

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