ज्यो उजाला उषा का
पूर्व से आ पहुँचा
त्यों संगी के मुख से
चांदनी का हटा तोशा।
नीलिमा सदर की मांद
होते होते चिल्लाई
गहरे तम में चाँद की
रश्मि रंध्र करके भीतर आई।
कश्मीर उदीची में
वादियों के बीच है मुस्काता
प्रसून के शिंजन में
ओंस से है डबडबाता।
हिमालय के उर पर लेटे
चांदनी ,शशि को गुण इसके बतलाए
यमुना के कलिंद में
लहरे है बल खाए।
प्रकृति की भंगिनी धरा
आँगन में है डाले फूल
टूट गिरे फल पेड़ों से
जब हवा उड़ाए धूल
विप्र के हवन से रीझती
अम्बा, रमा , वीणापाणि
सतकर्म पर जनमानस, विश्वास
अपना जीवन तारेगी हारिणी.
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