प्रकाश पुंज उद्घोष लगाकर
अलि बनाये जग में फैल गया
रागिनी के मधुर भान के सीने
चढ़कर मै आया अब बोल गया
पहले पहल सरित निर्झरों
की लहरों में जा चमकूँगा
फिर जलधि की सैकत पर
पैर पसारकर मचलूँगा
दूर्वा , तुंग शृंग मोतिहार
की गोद में रविता बनकर बैठा हूँ
विहान के पंजो में
शक्ति का उद्वेता हूँ
उपलों के भेष में खड़ा हुआ
किनारा जलडूबी पत्थर
कलयुगी मैसूर के मैदानों में
अब मेरा न लेगा कोई अवलम्बन खच्चर
निराशा के बोध में ह्रदय सुकुमार
न डुबकी अब लगाएगा
निज पग पग में संघर्ष के वादन
विर्द लघु मन मेरा समाज लगाएगा।
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