शूल मग में शर उभारे
रक्तपात को बिखरे है
पंजो को साध निशाना
दंत खूखार निखरे है
सूखे निर्जल टूटी शाखों
वाले पेड़ शीश नवाये
विजन दर्शाती सड़के
टूटे फूटे खण्डहर में
कवि ढूंढ रहा अवलम्बन नये
नवीन फूटे सी कोमल
मधुर बरसाते लघु लघु खेत
न जाने नजर लगी किसकी
फसले बर्बाद , खुल गया सियासत का भेद
अन्न मिलेगा तो परिश्रम
निर्धन का सम्भव होगा न
आधार परिचय न मिले
तो मालूम न था प्रशासन बाहर फेकेगा
भरी जवानी की अटकले
सीने को भीतर करती है
रगें फूलकर पुनः अकृत शरीर में
सांसे भरती है
शिशिर बीत गया किन्तु
यह बेजारी कब बीतेगी?
टूट चुकी कमर न्याय की
कब मानवता जीतेगी?
👌👌👌👌👌
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