Saturday 17 February 2018

मिश्रित व्यथाएं

शूल मग में शर उभारे
रक्तपात को बिखरे है
पंजो को साध निशाना
दंत खूखार निखरे है

सूखे निर्जल टूटी शाखों
वाले पेड़ शीश नवाये
विजन दर्शाती सड़के
टूटे फूटे खण्डहर में
कवि ढूंढ रहा अवलम्बन नये

नवीन फूटे सी कोमल
मधुर बरसाते लघु लघु खेत
न जाने नजर लगी किसकी
फसले बर्बाद , खुल गया सियासत का भेद

अन्न मिलेगा तो परिश्रम
निर्धन का सम्भव होगा न
आधार परिचय न मिले
तो मालूम न था प्रशासन बाहर फेकेगा

भरी जवानी की अटकले
सीने को भीतर करती है
रगें फूलकर पुनः अकृत शरीर में
सांसे भरती है

शिशिर बीत गया किन्तु
यह बेजारी कब बीतेगी?
टूट चुकी कमर न्याय की
कब मानवता जीतेगी?

1 comment:

राजनीति से औधौगिक घराने की दोस्ती कानून पर भारी पड़ जाती है?

  नमस्कार , लेख को विस्तृत न करते हुए केवल सारांशिक वेल्यू में समेटते हुए मै भारतीय राजनीत के बदलते हुए परिवेश और उसकी बढ़ती नकारात्मक शक्ति ...