" ठिठक "
झिडकती वात में धुल
आँगन को उड़ाती है
फ़िजा की सल्तनत को
चुनौती का रूप दिखलाती है
आलस्य रेन में भीगे तन का
स्वांग स्वांग ठिठुरता है
सर्द मस्तक को लग जाये
इसका भय करता है
केश गगन की ओर बढ़ते है
अंजुल जोर से रगड़
भित्तियों की आड़ में
लहू की चहलपहल पकड़
आज बदल गए मौसम
जलवायु की थकान से
प्रकृति के अंगीकरण में
भू भाग की रौनक मिटी
आलस्य को परहेज जतन से
किसलय की वृंत सूखी नही
धुप के अभिषेक से
ये तड़पती मनुजों के
परस्पर अतिरेक से
पर्वत खड़े जिसके संघर्ष
ने उन्हें खड़े रहने का बल दिया
भाग्यशाली भुवन जिसे
जगमग कल खिलखिलाता आज दिया।
शानदार कविता
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